धार्मिकमध्य प्रदेश

ज्ञानी बनो, अज्ञानी नहीं, अनेकांतवादी बनो, नयवादी नहीं- उपाध्याय श्री

ब्यूरो चीफ : भगवत सिंह लोधी
दमोह। श्री पारसनाथ दिगंबर जैन नन्हें मंदिर जी में गणाचार्य श्री विराग सागर जी के शिष्य उपाध्याय श्री विश्रुत सागर जी महाराज संघ सहित विराजमान है। उपाध्याय श्री के सानिध्य में प्रतिदिन धर्म ध्यान सभा चल रही है। जिसमें बड़ी संख्या में श्रावक जन शामिल होकर प्रवचन श्रवण करके धर्म लाभ अर्जित कर रहे हैं। गुरुवार को उपाध्याय श्री विश्रुत सागर जी अपने मंगल प्रवचन में ज्ञानी तथा अज्ञानी का भेद समझाते हुए कहा कि आचार्य भगवंतो ने कहा है कि हमारे पास ज्ञान भी है और क्रिया भी है। फिर भी हम मोक्ष क्यों नही जा पा रहे है? क्या कारण है ? कमी कहाँ है ? ज्ञानार्णव ग्रंथ में उद्धृत हैदृ हतं ज्ञानं क्रिया, शून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया। धावंनप्यंधको नष्टः पश्चन्नपि च पंगुकः। अर्थात् क्रिया रहित तो ज्ञान नष्ट है और अज्ञानी की क्रिया नष्ट हुई। देखो दौड़ता दौड़ता तो अंधा (ज्ञान रहित क्रिया) नष्ट हो गया और देखता देखता पंगुल (क्रिया रहित ज्ञान) नष्ट हो गया। एक जंगल से दो मित्र गुजर रहे थे। एक मित्र अचानक से जंगल में आग लग जाती है, दोनों मित्र सोचते प्राण कैसे बचाएं, क्योंकि एक अंधा है और दूसरा लंगड़ा है। अलग अलग कैसे भागे? उपाय मात्र एक ही है कि अगर अंधे के कंधे पे लंगड़ा बैठ जाएं तो जंगल पार हो जाएगा , प्राण बच जाएंगे। यही दशा है ज्ञान और चारित्र की। दोनों एक दूसरे की सहायता के बिना एक कदम भी नहीं जा सकते। ज्ञान लंगड़ा होता है और क्रिया अंधी होती है। जैसे अग्नि से बचने के लिए भी ज्ञान की आवश्यकता है क्योंकि अग्नि जलाती भी है और पकाती भी है। ज्ञान पूर्वक प्रयोग किया जाए तो अग्नि पर भोजन पकाकर भूख शांत की जा सकती है, वरना वहीं अग्नि जला भी सकती है द्य ऐसे ही ज्ञान पूर्वक कि गई क्रिया मोक्ष को दिला सकती वरना नरक जैसे स्थान पर पहुंचा देती है।
हम आते तो है पुण्य बढ़ाने के लिए लेकिन कषाय बढ़ाकर चले जाते है। जहां पर भी हमारे अनुरूप क्रिया न होने पर हम कषाय कर बैठते है और अज्ञानी बन जाते है। एकांत धारण से की गई क्रिया कषाय में सहयोगी हो सकती है। कहा भी है “एकांत नयः मिथ्याः“ एकांत नय से गए कथन को मिथ्या कहते है, लेकिन अधिकांशतः कथन नय से ही किया जाता है। जैसे कि एक पुरुष है जिसके अनेक संबंध होते है। कभी वह पिता है तो कभी पुत्र, चाचा, ताऊ, मामा, दादा, भाई आदि भी होता है। लेकिन अपनी पत्नी की अपेक्षा पति है, अपनी संतान की अपेक्षा पिता है, अपने माता – पिता की अपेक्षा पुत्र है, आदि जानना। अपेक्षा पूर्वक जहां कुछ भी कहा जाए वह ही नय है। नय विवाद खड़े कर देता है और अनेकांत उन विवादों को शांत कर देता है। ज्ञानी जन अनेकांत पूर्वक विवादों को शांत कर देते है। इसलिए तो कहा है की ज्ञानी बनो, अज्ञानी नहीं। अनेकांतवादी बनो, नयवादी नहीं।

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