धार्मिक

संत नहीं बन सकते तो संतोषी बने, संतोष सबसे बड़ा धनः भूपेन्द्र शास्त्री


श्रीमद् भागवत का हुआ विराम, अंतिम दिवस श्रीकृष्ण-सुदामा के चरित्र का वर्णन सुनकर श्रोता हुए भाव-विभोर
सिलवानी । मनुष्य स्वंय को भगवान बनाने के बजाए प्रभु का दास बनने का प्रयास करें। क्योंकि भक्ति भाव देख कर जब प्रभु में वात्सल्य जागता है तो वे सब कुछ छोडकर अपने भक्त रुपी संतान के पास दौड़े चले आते हैं। गृहस्थ जीवन में मनुष्य तनाव में जीता है, जबकि संत सद्भाव में जीता है। यदि संत नहीं बन सकते तो संतोषी बन जाओ। संतोष ही सबसे बड़ा घन है। यह उद्‌गार नगर के बीजासन मंदिर में आयोजित भागवत कथा के समापन अवसर पर कथा व्यास पं. भूपेन्द्र शास्त्री ने व्यक्त किए। कथा का आयोजन दुर्गा लक्ष्मीनारायण सोनी के परिवार ने कराया है। भागवत के सातवें दिन भगवान श्रीकृष्ण के भक्त एवं बाल सखा सुदामा के चरित्र का वर्णन किया। पं. शास्त्री ने बताया कि सुदामा के आने की सूचना पाकर किस प्रकार श्रीकृष्ण दौड़ते हुए द्वार तक गए थे। पानी परात को हाथ छूवो नाहीं, नैनन के जल से पग धोए। श्री कृष्ण अपने बाल सखा सुदामा की आवभगत में इतने विभोर हो गए कि द्वारका के नाथ हाथ जोडकर और लिपटाकर जल भरे नेत्रों से सुदामा का हालचाल पूछने लगे। उन्होंने बताया कि इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मित्रता में कभी धन दौलत आड़े नहीं आती। इस दौरान पं. शास्त्री ने सुदामा चरित्र की कथा का प्रसंग सुनाकर श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों का दमन कर ले वही सुदामा है। सुदामा की मित्रता भगवान के साथ निःस्वार्थ थी, उन्होंने कभी उनसे सुख साधन या आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कामना नहीं की लेकिन सुदामा की पत्नी द्वारा पोटली में भेजे गए चावलों में भगवान श्रीकृष्ण से सारी सच्चाई कह दी और प्रभु ने बिन मांगे ही सुदामा को सब कुछ प्रदान कर दिया। प्रसंग सुनकर श्रद्धालु भाव- विभोर हो गए। पं. शास्त्री ने कहा श्रीकृष्ण भक्त वत्सल है, सभी के हृदय में बिहार करते है आवश्यकता है सिर्फ शुद्ध हृदय से उन्हें पहचानने की। कथा के अंत में फूलों की होली व शुकदेव विदाई का आयोजन किया गया।

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