गांव हो या शहर, होली को लेकर पहले सा उत्साह नजर नहीं आता

बदलते समय ने छीने फागुन के मदमाते गीत, रोजी-रोटी की जुगाड़ में जुटे वनवासी
सिलवानी । होली के महापर्व में अब पहले जैसी परंपरा नही रही, ना डंडे कंडे, ना अब तक रंग गुलाल का कहीं नामों निशान। दिनों. दिन बढ़ती मंहगाई और आर्थिक तंगी ने जहां शहरी जनजीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है वहीं देहाती जनजीवन से भी उन लोक संस्कृति के रंगों को छीन लिया है जो आम जनजीवन को उल्लासित करने का भी कारण बनते थे तथा जंगल में मंगल की उक्ति को चरितार्थ करने में कामयाब होते थे। इसी का प्रमाण है जिले के ग्राम्यांचल और वनांचल का वह क्षेत्र जो विगत कुछ वर्षों से फागुन की मस्ती और होली की मादकता से दूर होता जा रहा है। आलम यह है कि आज ना तो गांव की चौपालों पर होली के गीत गूंज रहे हैं और ना ही सघन वनांचल में बसे गांवों की बस्तियों से हंसी ठहाके की आवाजें उभर रही हैं। गांवों में बसने वाले देहाती जहां आने वाले समय के लिऐ उपज को बेचने और नऐ सीजन की तैयारियां करने के साथ. साथ घर गृहस्थी की जिम्मेदारियों को निपटाने की प्रक्रिया में व्यस्त हैं वहीं जंगली इलाकों में रहने वाले वनवासी अपनी बस्तियों से निकलकर उन निर्माण स्थलों पर नजर आ रहे हैं जहां विकासशीलता अंगड़ाई लेती देखी जा रही है।
उल्लेखनीय है कि चंद वर्षों पहले तक वनों और गांवों की बहुलता वाले अंचल में ऐसा नहीं था। यह वह दौर था जब बमुश्किल दो जून की रोटी का जुगाड़ करने वाला देहाती व आदिवासी समाज तीज त्यौहारों को लेकर आह्लादित दिखाई देता था तथा त्यौहार से एक पखवाड़े से लेकर एक माह पूर्व तक से अपनी फाका मस्ती का प्रमाण सुरीली तानों और मदमाती धुनों से देने में व्यस्त हो जाता था। अब हालात काफी बदल गऐ हैं नतीजतन त्यौहारों को मनाने का ढंग भी बदल चुका है। लगातार बढ़ते भौतिकवाद ने देहात और शहर के बीच की सोच और जीवनशैली के फासले को बेहद कम कर दिया है।
नहीं गड़े डण्डे – नहीं छिड़ा सिलसिला…
होलिका दहन के लिऐ होलाष्टक की शुरूआत के साथ डाण्डे गाढ़े जाने तथा होलिका दहन के लिऐ सामग्री के एकत्रीकरण का जो सिलसिला कुछ वर्षों पहले कमोबेश एक पखवाड़े पहले से शुरू हो जाता था वह इस बार कहीं नजर नहीं आ रहा है। भले ही इसे लोग आम चुनावों की सरगर्मी से पहले का माहौल कह रहे हो परन्तु सच्चाई यह है कि उल्लास का माहौल कहीं बहुत पीछे छूट गया है। गांव की पगडण्डियों पर दौड़ने वाले नौजवान और बच्चे हों या फिर शहरी सड़कों पर फर्राटे भरते नवयुवक और बालक, कोई भी होली की तैयारियों को लेकर ना तो संजीदा है और ना ही उत्साहित। लोगों का कहना है कि जल्दी क्या है, होली हर बार जलती है इस बार भी खिल जाऐगी। रंग गुलाल हर बार खिलता है इस बार भी खिल जाऐगा। मतलब साफ है त्यौहार अब उल्लास के प्रतीक नहीं रस्मों की अदायगी भर रह गए हैं जिनका निर्वाह इस बार भी हो जाऐगा।