धार्मिक

कर्म का आश्रव निरंतर होता रहता है आश्रव को रोकना आसान नहीं

आचार्य श्री समयसागर जी महाराज
ब्यूरो चीफ ; भगवत सिंह लोधी
कुंडलपुर । दमोह सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में युगश्रेष्ठ आचार्य भगवन संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य पूज्य आचार्य श्री समयसागर जी महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा प्रति समय परिणाम बंध होते हैं आत्मा में जीव के परिणाम निश्चित रूप से पूर्ववत कर्म के उदय को लेकर के और कर्मफल के कारण जो सामग्री है विशेष सामग्री उनके निमित्त को लेकर नए सिरे से परिणाम उत्पन्न होते हैं और कर्म का आश्रव निरंतर होता रहता है। उस आश्रव को रोकना आसान नहीं है ।एक बात यह है आगम के अनुरूप हम सोचते हैं ऐसे संसार में अनंतानंत जीव है बिना पुरुषार्थ के उत्पन्न होते रहते है इसलिए गुरुदेव ने स्वाध्याय के दौरान तत्व चर्चा के दौरान बात रखी है और बहुत यह निरंतर इस विषय को ध्यान में रखते हुए हमें चलना चाहिए जीव का जो विकास होता है वह बुद्धि पूर्वक ही होता है और अबुद्धिपूर्वक भी जीव का विकास होता है और अंतर मुहूर्त में ऑटोमेटिक परिणाम में परिवर्तन होता रहता है । जिसको लेश्या भी कहते हैं और अंतर मुहूर्त परिवर्तनीय वह लेश्या होती है जिसके साथ संबंध रखने वाली योग की जो प्रवर्तनीय हैउसका नाम लेश्या ऐसा आगम में उल्लेख मिलता ।इसलिए नहीं चाहते हुए भी यह परिणाम होंगे और निगोद पर्याय में जिस जीव का वास है जहां पर एक श्वास में 18 बार जन्म और मरण हो रहा है और निरंतर अनंत का संवेदन कर रहा है और यह कर्म फल चेतना की बात आती है ।वह कर्म नहीं कर सकता अर्थात बुद्धि पूर्वक उसकी कोई चेष्टा नहीं होती किंतु पूर्व में बंधा हुआ कर्म है वह उदय में आता तो उसका फल भोगना अनिवार्य सिद्ध होता है ।वह फल निश्चित रूप से भोगेगा और प्रतिकार के भाव हो सकते हैं किंतु प्रतिकार वह चेष्टा के माध्यम से नहीं करता जैसा समझने के लिए एक वृक्ष खड़ा है भिन्न-भिन्न ऋतुओं में जो भी वातावरण निर्मित होता है उस बीच में वह खड़ा है वह दौड़ नहीं सकता ।देखा आपने वृक्ष दौड़ रहा हो यह बात अलग है रेल में बैठे तो लगता वृक्ष भाग रहे हैं किंतु वह अलग परिणति है वह वृक्ष भाग नहीं रहा दौड़ नहीं रहा एक कृषक है उसके हाथ में कुल्हाड़ी है वृक्ष काटने के उद्देश्य को लेकर उसके पास पहुंचा है कुल्हाड़ी का वह प्रहार कर रहा है और प्रत्येक प्रहार का उस वृक्ष को संवेदन हो रहा है। अनंत दुख का संवेदन वह कर रहा है आपको उसका कोई संवेदन दिखाई नहीं देता उसकी जो वेदना है आपकी दृष्टि में नहीं आ सकती समझने के लिए चींटी हैउस पर पैर पड़ जाता तो छटपटाहट होती। इसी प्रकार कोई भी एक्टिविटी उसे वृक्ष को देखने नहीं मिलती इसके उपरांत भी कर्म का फल वह भोग रहा है निरंतर भोगते हुए भी एक वस्तु का परिणमन है नहीं चाहते हुए भी परिणाम में अंतर आता है। कभी तीव्र कभी मंद इस प्रकार वह परिणाम की परिणति चलती रहती है ।उसमें मान लो उसके परिणाम मंदता को लेकर हैं उसे समय ऐसे योग ऑटोमेटिक हो जाता है वहां से निकलकर मनुष्य पर्याय को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य पर्याय को प्राप्त उसने कर लिया है इसलिए अतीत के कोई संस्कार होंगे इसलिए प्राप्त कर लिया ऐसा नहीं कहना चाहिए। जहां पर काम करते तो करते हैं सर्वत्र संभव नहीं है ।अनादि काल से उसने निगोद पर्याय में ही उसका परिणमन चल रहा है ऐसी स्थिति में उसके विकास के लिए कौन सा प्रसंग बना जिसके माध्यम से वह ऊपर उठा है ।923 जीव ऐसा है आगम में आया पढ़ने जिसका जन्म कहां पर हुआ है निगोद से निकली है अभी तक अतीत काल में त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं किया है बाहर वह पर्याय को प्राप्त कर रहा है उसमें भी चक्रवर्ती के पुत्र बन रहे हैं इसमें भी दो मत मिलते हैं हमने भी सुना है गुरु मुख से एक मत वह है कि वह सिर्फ चक्रवर्ती के पुत्र न बनके पहले गिजाय बोलते उस पर्याय को धारण कर लेते। 923उत्पन्न होकर चक्रवर्ती के पुत्र बन रहे हैं दूसरा मत यह है चक्रवर्ती के वह पुत्र बन रहे हैं हम और आप पुरुषार्थ कर रहे हैं नाक रगड़ रहे इसके उपरांत भी हमारा विकास नहीं हो पा रहा ।पुरुषार्थ निरंतर करते हुए भी विकास नहीं हो रहा तो उसमें अपना उपादान ही मानना पड़ता है ।923 जीव का कौन उपादान हो मन नहीं है मन के अभाव में असंज्ञी अवस्था में उसका विकास हुआ उसका स्वयं का ऐसा परिणमन है।

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