खत्म होती जा रही है सदियों पुरानी परंपरा लोक संस्कृति पर संकट के बादल

अब बिना झूले सावन उत्सव की रौनक , नई पीढ़ी अब मोबाइल की ओर
सिलवानी। सावन माह की शुरुआत होते ही कभी गांवों और कस्बों की गलियों, चौपालों और बगीचों में झूलों की बहार दिखाई देती थी। हर दिशा से लोकगीतों की गूंज सुनाई देती थी। सावन का पहला सोमवार झूले की रस्म से शुरू होता था, लेकिन आज यह दृश्य इतिहास की बात बनती जा रही है। क्षेत्र में अब झूले की यह सदियों पुरानी परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।
पहले सावन लगते ही पेड़ों पर झूले टांगने की होड़ लग जाती थी। बच्चे, युवतियां और महिलाएं समूह में गीत गाते हुए झूले झूलती थीं। काहे को डोले रे अमवा की डाली,झूला झूलो, सावन आया जैसे गीत सावन को जीवंत बना देते थे। मगर अब गांवों में भी बमुश्किल कोई एक दो झूले दिखाई देते है।
नगर सहित ग्रामीण क्षेत्र में अनेक कई गांवों में पहले हर साल पेड़ों पर दर्जनों झूले बांधे जाते थे, लेकिन अब पेड़ भी कम हो गए हैं और उनके नीचे जुटने वाले लोग भी। गांवों का तेजी से शहरीकरण, पेड़ों की कटाई और खाली स्थानों की कमी ने भी इस संस्कृति को पीछे धकेला है। स्थानीय समाजसेवियों और बुजुर्गों का कहना है कि अगर हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को नहीं बचाएंगे, तो आने वाली पीढ़ियों को सिर्फ किताबों में सावन के झूले मिलेंगे। इसके लिए गांवों में स्कूलों, पंचायतों और सामाजिक संगठनों को मिलकर काम करना होगा, ताकि इस लोक परंपरा को फिर से जीवित किया जा सके।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि स्थानीय प्रशासन और सांस्कृतिक विभाग इस दिशा में पहल करें, तो झूला उत्सव को एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में पुनर्जीवित किया जा सकता है। पंचायतें भी ग्राम स्तर पर झूला महोत्सव आयोजित कर युवाओं को जोड़ सकती हैं। क्षेत्र की लोक संस्कृति में झूले केवल एक खेल नहीं, बल्कि सामाजिक एकता, प्रकृति से जुड़ाव और परंपरा की जीवंत तस्वीर थे। अगर इन्हें समय रहते संरक्षित नहीं किया गया, तो सावन के महीने से एक अनमोल रंग हमेशा के लिए छिन जाएगा।
नयी पीढ़ी का रुझान मोबाइल की ओर
पुरानी पीढ़ी का मानना है कि आज की पीढ़ी का ध्यान मोबाइल, टीवी और सोशल मीडिया पर ज्यादा है। न उन्हें लोक परंपराओं से जुड़ाव है और न ही सावन के मौसम का वैसा इंतजार जैसा पहले हुआ करता था। झूले की परंपरा सिर्फ मनोरंजन नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक मेल-मिलाप और स्त्रियों के सामूहिक जुड़ाव का जरिया भी थी। गांवों में सावन में झूला महोत्सव या झूला प्रतियोगिताएं होती थीं, जो अब बहुत ही कम देखने को मिलती हैं।



