पितृ पक्ष और नेता… भ्रष्ट नेता भी श्रद्धा से तर्पण कर सत्ता का आनंद उठाते हैं…

दिव्य चिंतन : हरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार
पितृ पक्ष पितरों के प्रति श्रद्धा का पर्व है और चुनाव लोकतांत्रिक उत्सव । हिंदू पंचांग अनुसार पितृपक्ष एक पखवाड़े का और चुनावी वर्ष एक साल का होता है।
पितृ पक्ष में पितरों को परिजन और चुनावी वर्ष में आत्म विहीन मतदाताओं का राजनैतिक दलों के नेता श्रद्धा पूर्वक तर्पण और पिंडदान करते हैं।
श्राद्ध के दिन सफेद वस्त्र पहनकर पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए मृत परिजन की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना कि जाती है। नेताओं को भी सफेद वस्त्र पसंद होते हैं। वह भी आत्म विहीन मतदाताओं को सामने पंडाल में बैठाकर हाथ जोड़कर उनसे दया दृष्टि करने की प्रार्थना करते हैं। मान्यता है कि पितृ पक्ष में श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करने से पितरे प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं। वहीं चुनाव वर्ष में मुफ्त बांटने, घोषणाओं, लोकार्पण, उद्घाटन और पंचायत लगाने से आत्म विहीन मतदाता प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
गया जी में पिंडदान करने से पितरों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और आत्म विहीन मतदाताओं के मतदान करने से नेताओं को पांच साल के लिए सत्ता की कुर्सी मिलती है।
पितृ पक्ष में कोई शुभ कार्य नहीं होता और चुनावी वर्ष में सभी कार्य शुभ होते हैं। पितृ पक्ष में
व्यापार मंदा होता है। इसलिए व्यापारी इस पखवाड़े को कड़े दिन कहता है। चुनावी वर्ष में
पत्रकारों, किसानों, कर्मचारियों, छात्रों, बेरोजगारों, महिलाओं को
सत्तारूढ़ दल सब कुछ मुफ्त में और विपक्ष आश्वासन देता है। इसलिए चुनावी वर्ष मीठे दिन कहलाता है।
जो परिजन जिंदा रहते बुज़ुर्ग को रोटी और जल नहीं देते, वे पितृपक्ष में धूमधाम से पटा (श्राद्ध) करते हैं। ब्राह्मण को भोजन, गऊ को गौग्रास, काग को खीर, श्वान को पूड़ी और चींटी को दाना डालते हैं। वहीं जो राजनेता कार्यकर्ताओं का फोन नहीं उठाते, घर आने पर सम्मान नहीं देते, मतदाता से दो मीठे बोल नहीं बोलते, गाड़ी के शीशे चढ़ा कर घूमते हैं। वे चुनावी वर्ष में कलमकारों को भोजन, कर्मचारियों की वेतन-वृद्धि, किसानों को सम्मान निधि, छात्रों को स्कूटी, बेरोजगारों को रोजगार भत्ता और लाड़ली बहनों को पैसा बांटते हैं।
बिकने वाले मतदाताओं के कारण ही लोकतंत्र का स्वरूप लोकसभा और विधानसभा में कुरुप हुआ है। भ्रष्ट नेता भी श्रद्धा से तर्पण कर सत्ता का आनंद उठाते हैं और पांच साल तक मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार कर जनता का खून चूसते हैं। यदि स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना करना है तो मुफ्तखोरी बंद करना होगी।
