हम स्वार्थी नहीं परमार्थी बने : कमलेश शास्त्री

सुल्तानगंज । अटा नई गडिया में चल रही भागवत कथा के पंचम दिवस में पं कमलेश शास्त्री ने कहा भारतीय संस्कृति का मूल स्वर “इदम न मम” है। इसका अर्थ है कि हमारे पास जो कुछ भी है उसमें अन्यों के भी हिस्से हैं और हम स्वार्थी न रहें। अतः प्राप्त साधनों को परिजनों एवं साधनहीन बन्धुओं के साथ बाँटना परमात्मा की श्रेष्ठ उपासना है। आइये ! अपनी ऊर्जा, विचार, अनुभव अध्ययन एवं अन्य बहुमूल्य साधनों से दूसरों को भी लाभान्वित करें .! दूसरों के अभाव का हरण कर परमार्थी बनें .. छोटी-छोटी बूँदों की तरह धन संचय कर दान करें। धन का सदुपयोग करने वाला मनुष्य ही सामाजिक कार्यों में हाथ बँटा सकता है। यदि ईश्वर ने आपको धन सम्पदा दी है तो उसका उपयोग धर्म के कार्य में करना चाहिए। सद्कार्य में धन का सदुपयोग करने से धन और धर्म दोनों बढ़ते हैं। धन लक्ष्मीजी के ज्येष्ठ पुत्र हैं। जो इसका उपयोग “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के लिए करते हैं, उन पर लक्ष्मीजी सदा प्रसन्न रहती हैं। प्रभु की कृपा अनुकूल-प्रतिकूल समस्त परिस्थितियों में निहित है। अनुकूल परिस्थितियों में वह है ही, किन्तु प्रतिकूलता मेंं छिपी भगवत्कृपा उस कटु दवा के समान है, जो सेवनकाल में अप्रिय प्रतीत होते हुए भी परिणाम में सुखद है। भगवत्प्राप्ति साधन-साध्य नहीं, बल्कि कृपा-साध्य है। साधनों का त्याग कदापि अभिलक्षित नहीं है, जैसे ढँके हुए पात्र में वर्षा का जल नहीं भर सकता, ठीक उसी प्रकार कृपा से लाभान्वित होने के लिए साधनों से यथासम्भव मुख नहीं मोड़ना चाहिए। कृपा अभिलाषी बने रहना मानवमात्र के लिए अभीष्ट है। कृपा-अभिलाषिता का स्वरूप कैसा हो? अपने अभिमान को पूर्णतया भूलकर सतत्-साधन स्वरूप स्वधर्म का पालन करते हुए प्रभु-कृपा की बाट जोहना। साधक यह विश्वास रखे कि प्रभु ही इसका कर्ता-धर्ता हैं, उनकी अहैतुक कृपा से ही हमारा अस्तित्व है और भविष्य में भी उनकी कृपा रहेगी। अतः साधक को स्नेहमयी भगत्कृपा की प्राप्ति के लिए सदैव उत्कंठित और लालायित बने रहना चाहिए ..।
ने कहा – मानव सामाजिक प्राणी है। अपने हित के साथ-साथ उसे दूसरों की भलाई करने के बारे में भी सोचना है। संसार में अकेले एक व्यक्ति कोई काम पूरा नहीं कर सकता इसके लिए उसे अन्य लोगों की सहायता अवश्य लेनी होती है। जीवन निर्वाह के लिए भी हम दूसरों पर आश्रित रहते हैं। ऐसी स्थिति में हम दूसरों का भी महत्व जानकर उनके काम आयें तो, सबका निर्वाह सुचारू रूप से हो सकता है । अपनी स्वार्थ भावना भूलकर दूसरों की सहायता करना मानव का प्रथम कर्तव्य है। इससे ही मानव सुखी और सार्थक व्यक्ति बन सकता है।