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संघर्ष, सियासत और न्याय की तलाश ! अगस्त माह का लेखा-जोखा

हरीश मिश्र, लेखक स्वतंत्र पत्रकार
अगस्त के महीने में गांव-गांव, शहर-शहर नदी नालों को उफनते और कोलकाता से बदलापुर तक दुष्कर्म की पीड़ा देखी। आज जो सन्नाटा दिखाई दे रहा है, वह अधिक दिनों तक नहीं रह सकता। सितंबर में उफान भी आएगा, तूफान भी आएगा।
नेताओं को सत्ता के लाभ के लिए दुष्कर्म, आरक्षण , वक्फ संशोधन पर जनता को उकसाने का खेल खेलते देखा, जो लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है।
स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी को ग्यारहवीं बार “यह भारत का स्वर्णिम कालखंड है…कहते सुना।
एक अनुसंधान से पता चला कि हर समय अभिनेता बनने की सनक मनुष्य से सब कुछ कराती है ‌। उसे क्या से क्या बना देती है। नायक को विदूषक बना देती है। ऐसे मनुष्य की मन:स्थिति दयनीय होती है। उनका अपना निराला संसार होता है। ऐसे लोगों की अपनी जमात होती है। स्वर्णिम कालखंड में अभिनेता बनने की सनक में बाल अभिनेता राहुल गांधी को बजट हलवा में और मिस इंडिया में जाति ढूंढते देखा।
बांग्लादेश में अप्रैल में चिंगारी भड़की और अगस्त में खूनी बरसात होते देखी। आज़ादी के नायक शेख मुजीबुर रहमान की मूर्ति को खंडित करते देखा । हिंदू अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म होते और शेख हसीना को भारत के गले पड़ते देखा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यूक्रेन की ऐतिहासिक यात्रा देखी । कोलकाता मेडिकल कॉलेज में महिला प्रशिक्षार्थी डॉक्टर के साथ दुष्कर्म और हत्या के बाद देश भर में मोमबत्ती आंदोलन देखा । तंदूर कांड, निर्भया कांड, अजमेर कांड से लेकर कोलकाता, बदलापुर तक मोमबत्ती को रिसते, पिघलते, चुप-चाप जलते और पिघलकर फिर से मोम बनते देखा। दुष्कर्म और जघन्य हत्या के मामले पर महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को गुस्सा और मणिपुर पर मौन देखा। सुप्रीम कोर्ट जज को सख्त टिप्पणियां करते और ममता को प्रधान चौकीदार को पत्र लिखते देखा। सीबीआई को जांच करते और राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं को टीवी चैनलों पर बहस में शाब्दिक दुष्कर्म करते देखा।
अनुसूचित जाति, जनजाति की पहली पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेकर उच्च स्थिति तक पहुंच गई है। तो दूसरी पीढ़ी को आरक्षण का लाभ ना दें सुप्रीम कोर्ट को आदेश देते देखा।
आदेश बाद जिन्होंने अपनी ही जाति का हिस्सा खाकर डकार भी न ली, उन्हें सामाजिक न्याय का झंडा उठाते, भारत बंद कराते सड़कों पर देखा।
वक्फ कानून संशोधन पर विवाद पर संयुक्त संसदीय समिति बनते देखी । राहुल गांधी, अखिलेश यादव,औवेसी, इमरान प्रतापगढ़ी, दिग्विजय सिंह को कब्रिस्तान में कब्रों पर फूल चढ़ाते और आंसू बहाते देखा। हाईकोर्ट न्यायाधीश जी एस अहलूवालिया को बुरहानपुर में नादिरशाह के मकबरे को वक्फ बोर्ड की सम्पत्ति मानने से इंकार करते देखा।
राज्यसभा में बोलने की टोन पर जगदीप धनखड़ और अदाकारा, राज्यसभा सांसद जया अमिताभ बच्चन में तीखी नोंकझोंक होते देखी। टोन पर उठे विवाद के बाद विपक्षी सांसदों को बहिष्कार का टोटका करते देखा।
न्याय में देरी भी अन्याय है। अजमेर कांड में हैवानियत 1992 में हुई और अदालत का निर्णय 32 साल बाद आते देखा।
उफ्फ ! यह कैसा न्याय! किसी भी महिला के साथ यौन शोषण जघन्य अपराध है, क्योंकि अपराधी का दैहिक बुल्डोजर उस महिला की आत्मा को कुचल देता है, लहूलुहान कर देता है, जीते जी मार डालता है,उसे जिंदा लाश बना देता है । श्रीमान! जब आपको न्याय करने में 32 साल लगते हैं, तब सरकार का बुल्डोजर चलाकर कठोर दंड असंवैधानिक होते हुए भी अभिनंदनीय हैं। उन अपराधियों की मानसिकता कुचलना भी जरूरी है।
लाड़ली बहनों, जनसेवकों को खुश करने के चक्कर में मोहन सरकार को खजाना लुटाते देखा।
हर धर्म, मज़हब के बंदे को ईश्वर , अल्लाह, जीजस का सम्मान करना चाहिए और कोई अपमान करे तो उसकी निंदा करनी चाहिए। लेकिन समाज , समुदाय को पुलिस, प्रशासन, संविधान पर भरोसा करना होगा। कानून हाथ में कैसे ले सकते हैं?
पैगम्बर मोहम्मद साहब पर की गई टिप्पणी से छतरपुर में मुस्लिम समुदाय में आक्रोश देखा, जो जायज भी था। लेकिन आक्रोश व्यक्त करते समय सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने की साजिश करना कहां का न्याय है?उपद्रवियों द्वारा पुलिस के गिरेबान पर हाथ आने के बाद मोहन सरकार का सख्त रुप देखा। कानून को हाथ में लेने वालों को को मिट्टी में मिलाते देखा। जिन हाथों में पत्थर और होंठों पर नारे था, उनके हाथों में ईंट के रोड़े पकड़ाते देखा।
भारतीय पहलवान विनेश फोगाट ने तीन पहलवानों को बल से हराया, दूसरे दिन छल से हारते देखा।
डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत सिंह राम रहीम को फिर पैरोल पर बाहर आते देखा। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान चुनाव पूर्व सत्ता सौदा का प्रयोग देखा।
आज का भारत एक संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। जहां एक ओर सामाजिक और राजनीतिक तूफान उठ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर न्याय और समानता की खोज जारी है। सवाल यह है कि क्या हम इस उथल-पुथल से निकलकर एक बेहतर समाज की ओर बढ़ पाएंगे, या फिर यह सन्नाटा और उफान हमारे लोकतंत्र की जड़ों को और भी हिला देंगे? आने वाले समय में हमें देखना होगा कि कौन-सी दिशा हमारा भविष्य तय करेगी — उन्माद और विद्रोह की, या फिर शांति और विकास की।

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