उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का निधन
उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद पूरी कैबिनेट के साथ अयोध्या राम मंदिर बनाने की शपथ ली थी, बाबरी ढांचा टूटने पर एक दिन की जेल हुई थी
नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अगस्त 2020 में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए शिलापूजन कर रहे थे, तब एक ऐसा शख्स वहां मौजूद नहीं था, जिसकी वजह से मंदिर निर्माण का काम मुमकिन हो पाया। हम बात कर रहे हैं भाजपा के कद्दावर नेता रहे कल्याण सिंह लोधी की। उनके मुख्यमंत्री रहते हुए 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा गिरा दिया गया था।
कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद को बचाने का हलफनामा दिया था, लेकिन उन्होंने कारसेवकों पर गोली नहीं चलाने का आदेश भी दिया। लिहाजा, उस दिन बाबरी ढांचा भी गिर गया और उत्तरप्रदेश में उनकी सरकार भी।
पूरी सरकार के साथ राम मंदिर बनाने की शपथ ली थी
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990 में मंडल-कमंडल की राजनीति शुरू की थी। सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का ऐलान किया, तो भाजपा ने श्री राम मंदिर निर्माण आंदोलन को राजनीतिक तौर पर हाथ में लिया। इसके बाद देश में राजनेता दो हिस्सों में बंट गए।
एक मंडल की राजनीति करने वाले और दूसरे मंदिर की राजनीति के साथ, लेकिन कल्याण सिंह देश के शायद अकेले राजनेता होंगे, जिन्होंने दोनों तरह की राजनीति एक साथ की। भाजपा में सोशल इंजीनियरिंग को आगे बढ़ाने वाले नेता का नाम कल्याण सिंह है, तो राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए पूरी सरकार के साथ शपथ लेने वाले और सरकार से इस्तीफा देने वाले राजनेता का नाम भी कल्याण सिंह है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एक दिन के लिए तिहाड़ में सजा
ब्राह्मण-बनियों की पार्टी माने जाने वाली बीजेपी में पिछड़ों और दलितों के पहले नेता रहे कल्याण सिंह और देश की राजनीति में ऐसे पहले ही मुख्यमंत्री भी जो किसी गोली कांड के लिए अफसरों को बलि का बकरा बनाने के बजाय खुद को जिम्मेदार मानते थे, वो भी लिखित तौर पर और उसके लिए सजा पाने को भी तैयार थे। सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर भी जब वे अयोध्या में 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद को गिरने से नहीं रोक पाए थे, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एक दिन की सजा के लिए तिहाड़ जेल गए और कहा कि मुख्यमंत्री के तौर पर खुद उन्होंने अफसरों को कहा था कि वे कारसेवकों पर गोली नहीं चलाएं।
आठ बार विधायक, तीन बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री, राजस्थान के गवर्नर
यूं तो वाजपेयी की तरह कल्याण सिंह भी अपना पहला चुनाव हार गए थे, लेकिन उसके बाद 8 बार विधायक भी रहे। तीन बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री, एक बार लोकसभा के सांसद और फिर राजस्थान के गवर्नर भी, लेकिन राजनीति से मन तब भी नहीं भरा और 2019 के चुनावों में न केवल भाजपा के लिए चुनावी रणनीति बनाई, बल्कि पिछड़ों और दलितों को साथ लाने में भी मदद की।
भाजपा छोड़ी, फिर वापस भी आए
भारतीय जनता पार्टी में कल्याण सिंह एक जमाने तक उत्तर प्रदेश के सबसे कद्दावर नेता हुआ करते थे। उनके बारे में कहा जाता था कि देश में अटल बिहारी और उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह। इसे ताकत का नशा कहें कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को भी नहीं छोड़ा। नतीजतन पार्टी ही छोड़नी पड़ी, फिर प्रमोद महाजन की कोशिशों से वापसी हुई, वो भी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए।
बाबरी ढांचा गिरा, तो मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया
मुख्यमंत्री के तौर पर उत्तरप्रदेश में नकल रोकने के लिए कड़ा कानून बनाया। इस वजह से उन्हें नाराजगी भी झेलनी पड़ी। उस वक्त राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री थे। भाजपा को 1991 में उतरप्रदेश में 425 में से 221 सीटें मिली थीं। मुख्यमंत्री की शपथ लेकर कल्याण सिंह पूरे मंत्रिमंडल के साथ अयोध्या गए थे। वहां उन्होंने कहा- कसम राम की खाते हैं, मंदिर यहीं बनाएंगे। अगले साल कारसेवकों ने बाबरी ढांचा गिरा दिया और जब वहां जमीन समतल हो गई, तो कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
जब तक केन्द्र सरकार हरकत में आती, अयोध्या में कारसेवक अपना काम कर चुके थे। दिल्ली में दिन भर गोपनीय तरीके से बैठे रहे प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने शाम को उत्तरप्रदेश की सरकार बर्खास्त कर दी। जब 1993 में विधानसभा चुनाव हुए, तो भाजपा की सीटें घटीं, लेकिन उसके वोट बढ़ गए। इस वजह से भाजपा की सरकार नहीं बन पाई। इसके बाद, 1995 में भाजपा और बसपा ने मिलकर सरकार तो बनाई, लेकिन कल्याण मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। बाद में बीजेपी ने हाथ खींच कर सरकार गिरा दी।
उत्तरप्रदेश में सियासी खींचतान के नतीजे में राष्ट्रपति शासन लगा
इसके बाद उत्तर प्रदेश में एक साल तक राष्ट्रपति शासन रहा। 17 अक्टूबर 1996 को जब 13वीं विधानसभा बनी, तो किसी को बहुमत नहीं मिला। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन उसे 173 सीटें ही मिलीं, जिससे सरकार नहीं बन सकती थी। समाजवादी पार्टी को 108, बसपा को 66 और कांग्रेस को 33 सीटें मिली।
तब के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने राज्य में राष्ट्रपति शासन 6 महीने और बढ़ाने की सिफारिश कर दी। पहले ही एक साल से राष्ट्रपति शासन चल रहा था, लिहाजा मामला अदालत में पहुंचा। तब सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए, केन्द्र के राष्ट्रपति शासन को बढ़ाने के फैसले को मंजूरी दे दी।
अगड़ों-पिछड़ों की दोस्ती में कल्याण की सरकार नहीं चल पाई
इसके बाद हिन्दुस्तान की राजनीति में पहली बार नया प्रयोग हुआ। पिछड़ों और अगड़ों की पार्टी के बीच सियासी दोस्ती हुई। बसपा और भाजपा के बीच 6-6 महीने मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ। पहले 6 महीने के लिए मायावती 21 मार्च 1997 को मुख्यमंत्री बनीं और भाजपा से केसरी नाथ त्रिपाठी विधानसभा अध्यक्ष बने। शर्त के मुताबिक, 6 महीने बाद 21 सितम्बर 1997 को कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनने का नंबर आया, लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने के एक महीने से भी कम समय में मायावती ने 19 अक्टूबर को सरकार से समर्थन वापस ले लिया। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को सिर्फ 2 दिन में बहुमत साबित करने को कहा। इन 2 दिन में ही कांग्रेस, बसपा और जनता दल में टूट हो गई, भाजपा का साथ देने के लिए।